Thursday, July 30, 2009

यह हार नहीं जीत है

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

बलूचिस्तान का नाम आते ही जेहन में दो तस्वीर उभर कर आती है. इनमे से एक में पाकिस्तानी सैनिको ने कुछ बलूचियों के सर को अपने बूट के नीचे बड़ी निर्ममता से दबा रखा था. दूसरी तस्वीर में कलात के खान बुगती का शव की है. इस तस्वीर में मौजूद कुछ बलूची नवयुवकों की आँखों में पाकिस्तानी सैनिकों के प्रति उनका गुस्सा साफ़ झलक रहा था. इन दोनों तस्वीरों को कुछ साल पहले इन्टरनेट पर देखा था।


बलूचिस्तान, पाकिस्तान का सरहदी सूबा है. पाकिस्तान के इस सबसे बड़े राज्य की सीमा ईरान और अफगानिस्तान को छूती है.पाकिस्तान में बलूचियों की आबादी महज ६.५ मिलियन है, जो कि सिन्धी और पंजाबी मुस्लिमों के मुकाबले काफी कम है. हालाँकि ईरान में इनकी अच्छी खासी तादाद मौजूद हैं . बलूची आम तौर पर कबीलाई जीवन शैली में रचे-बसे होते हैं और किसी दूसरी कौम की सरपरस्ती पसंद नहीं करते हैं. शायद यही वजह थी कि जब हिंदुस्तान के बटवारे की बात चल रही थी, तब कलात के खान ने बलूची जनमानस की नुमाइंदगी करते हुए बलूचिस्तान का पाकिस्तान में विलय करने से साफ़ इनकार कर दिया था. यह पाकिस्तान के लिए असहनीय स्थिति थी. मुस्लिम बहुल बलूचिस्तान के सबसे बड़े नेता कलात के खान ने पाकिस्तान के सिद्धांत पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया था. अंततः पाकिस्तान ने सैनिक कार्यवाही कर जबरन बलूचिस्तान का विलय कर लिया।


१९४८ से ही कलात के खान के नेतृत्व में बलूचिस्तान की जंगे-आजादी शुरू हुई। हालाँकि बन्दूक के भय से उस वक्त इस संघर्ष को पर्याप्त जनसमर्थन नहीं मिला। लिहाजा अधिकांश अलगाववादी नेता ब्रिटेन और अमेरिका चले गए। धीरे-धीरे पंजाबी-सिन्धी पाकिस्तानी शासकों ने बलूचिस्तान की अनदेखी करनी शुरू कर दी। इन हुकुमरानों की नीतियों से शासन-प्रशासन में बलूचियों का हिस्सा कम होने लगा. बलूचिस्तान में चलने वाले सरकारी प्रोजेक्टों में भी स्थानीय नागरिकों की बजाय पंजाबी और सिंधियों को प्राथमिकता मिलने लगी. स्वतंत्रता प्रिय बलूचियों को यह बात असहनीय प्रतीत होने लगी. धीरे-धीरे वहां आजादी की जंग को समर्थन मिलने लगा. नब्बे के दशक में बलूचियों ने अपने मातृभूमि में पाकिस्तानी सरकार के कई ठिकानो पर हमला किया. इन हमलों में बड़ी संख्या में पंजाबी-सिन्धी पाकिस्तानी मारे गए. चीन की सहायता से ग्वादर में बन रहा पाकिस्तानी बंदरगाह भी इनसे बच नहीं सका. यहाँ हुए हमले कई चीनी इंजीनियर मारे गए. इसके बाद पाकिस्तानी अथारिटी ने यहाँ विद्रोह दबाने के लिए बड़े पैमाने पर सैनिक अभियान चलाया. २००६ में बलूचिस्तान की जंगे आजादी को बड़ा झटका लगा. पाकिस्तानी सैनिको की कार्यवाई में कलात के खान बुगाटी शहीद हो गए और हजारों की तादाद में बलूची मुजाहिदीनों को मौत के घाट उतर दिया गया. बड़े पैमाने पर मानवाधिकार का हनन हुआ.


भारत के लिए बलूचिस्तान में हो रही घटनाओं का खासा महत्व है। सबसे बड़े दुश्मन देश का सबसे बड़ा प्रान्त है. पाकिस्तान का परमाणु परीक्षण स्थल भी चगताई की पहाडियों में है. यहाँ चीन की मौजूदगी भारतीय सुरक्षा के लिए खतरनाक है. प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर बलूचिस्तान भारत-ईरान गैस पाइप लाइन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. इसकी सरहद अफगानिस्तान को छूती है, जहाँ नाटो के सैनिक तैनात है. तालिबानी खतरा भी सर उठाये खडा है. ऐसे में भारत बलोचिस्तान में हो रही घटनाओं की अनदेखी नहीं कर सकता है. वैसे हिन्दुओं का प्रसिद्ध शक्तिस्थल 'हिंगलाज माता ' भी इसी सूबे में है. क्वेटा के इर्द-गिर्द रहने वाले थोड़े बहुत हिन्दू पाकिस्तानी सैनिको द्वारा बराबर उत्पीडित किये जाते हैं.
अभी हाल ही में शर्म-अल-शैख़ में मनमोहन सिंह और गिलानी ने संयुक्त बयान जारी किया है। बयान में बलूचिस्तान का भी जिक्र है. वहां हो रही घटनाओ पर खुफिया जानकारी के आदान-प्रदान पर दोनों देशों में सहमति बनी है. यह बयान स्पष्ट करता है की पाकिस्तान बलूचिस्तान की घटनाओ पर काबू करने में अकेले सक्षम नहीं है. उसे अपनी सरजमी की रक्षा के लिए भारत की सहायता चाहिए. अर्थात वह अपने अन्दुरुनी मामलों में दखल देने का मौका भारत को देना चाहता है. भारत को इस अवसर का पूरा लाभ उठाना चाहिए. जिस तर्ज पर पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को हर अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उठाता है, ठीक उसी तर्ज पर भारत को बलूचियों की समस्या को प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उठाना चाहिए. इस घोषणा पत्र के जारी होने के बाद दुनियाभर में फैले अलगाववादी बलूची नेताओ ने जश्न मनाया. इन नेताओ ने भारत को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर बलूची समस्या को उठाने का न्योता भी दिया। भारत किसी भी मुल्क के अन्दुरुनी मसले में हस्तक्षेप करने में दिलचस्पी नहीं लेता, लेकिन पाकिस्तान ने शर्म -अल-शैख़ के जरिये उसे अपने घरेलू मामलों में बोलने का अधिकार दे दिया है. यह भारतीय कूटनीति की एक बड़ी कामयाबी है.


बलूचिस्तानी घटनाओं में भारत का हाथ होने का पाकिस्तानी आरोप है। यह आरोप उतना ही बड़ा झूठ है जितना बड़ा सफल राष्ट्र होने का पाकिस्तानी दंभ. वहां कुछ हथियार मेड इन इंडिया जरूर मिले हैं, लेकिन पाकिस्तान यह साबित करने में विफल रहा कि इन हथियारों को भारत ने बलूची आजादी के सिपाहियों को मुहैया कराया है. वस्तुतः हथियारों कि तस्करी आम बात है. बलूची क्रांतिकारियों ने तस्करी के जरिये ही इन हथियारों कि खरीद-फरोख्त की होगी. बलूची मूवमेंट की फंडिंग में भी भारतीय हाथ साबित करना नामुमकिन हैं. क्योंकि बलूची मूवमेंट को दुनिया भर में फैले बलूचियों की सहानभूति प्राप्त है और ईरानी बलूची ही मुख्य तौर पर धन उपलब्ध कराते हैं. पाकिस्तान ने हेरात, ईरान में स्थित भारतीय व्यापारिक दूतावास पर भी बलूची मुजाहिदीनों को ट्रेनिंग देने का आरोप लगाया है लेकिन साबित कुछ भी नहीं कर सका है और न ही कभी कर पाएंगे. क्योंकि भारत इस तरह की हरकतों में यकीन नहीं रखता है.


पाकिस्तानी हुकुमरानों की आदत सी हो गयी है कि वे अपने देश में होने वाली प्रत्येक हिंसक घटना के लिए भारतीय खुफिया एजेन्सी 'रा' को जिम्मेदार ठहरा कर अपनी जिम्मेदारियों से निजात पाने की कोशिश करते है. पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया. इसके लिए भी पाकिस्तानी हुकुमरान अपने सैनिको द्वारा बांग्लादेशियों पर किये गए अत्याचार को नहीं बल्कि भारत को जिम्मेदार मानते हैं. अब बलूचिस्तान भी बांग्लादेश की राह पर अग्रसर है. और पाकिस्तानी हुकुमरान फिर वही गलतियाँ दोहराते जा रहे हैं.

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